सोमवार, 30 नवंबर 2015

कोहरे से सूरज और धूप की तरफ अग्रसर कवि
                      -डॉ अजीत प्रियदर्शी




भूमण्डलीकरण और बाजारवाद के बढ़ते दुष्प्रभावों से भरा यह समय मनुष्यमात्र के लिए गहरे, तनाव, दबाव, निराशा और खीझ से भरा है। कविता के लिए भी समय तनाव, दबाव, प्रतिरोध और असंतोष की अभिव्यक्ति के रूप में दिखाई दे रहा है। पक्षधर और प्रतिबद्ध कवि अपने समय तथा समाज के मनुष्यों की स्थिति, नियति से मुठभेड़ करते हैं फिर उन्हें बदलने के स्वप्न देखते हैं, आकांक्षा करते हैं और बदलाव के स्वप्न, आकांक्षा तथा संकल्प के साथ कविता करते हैं। कविता हमेशा जीवन के सच्चे अनुभवों से पैदा होती है। सच्चे अनुभवों के अभाव में कविता शब्दों का मधुर संसार मात्र रह जाएगी, जिसमें मार्मिकता और हृदयस्पर्शिता नहीं होगी। जीवन की खरी व सच्ची अनुभूतियों से लैश कविता में ही विश्वसनीयता और आत्मीयता का सहज संसार विद्यमान होगा।
बृजेश नीरज समकालीन कविता के पाठकों के बीच सुपरिचित नाम नहीं है। कोहरा सूरज धूपउनका पहला काव्य संग्रह है, जो अंजुमन प्रकाशन इलाहाबाद से छपा है। इस संग्रह में कुल साठ कविताएँ संकलित हैं। संग्रह की अधिकांश कविताएँ आकार-प्रकार में छोटी हैं लेकिन वे अनुभूति व अनुचिंतन से भरी कविताएँ हैं। इस संग्रह की अधिकांश कविताएँ यथार्थ को पूरी गम्भीरता से परखती हैं और सच को सच की तरह कहने का प्रयास करती हैं। उनकी कविताएँ मात्र अनुभूतियों, भावों की अभव्यक्ति नहीं हैं, बल्कि उनके विचारों और पक्षधरता का प्रकटीकरण भी है। कवि पाता है कि मनुष्य के लोभ का विकराल रूप अब प्रकृति का, नदी का ऐसा कृतघ्न दोहन करने लगा है कि नदी की धारा ठिठकी सीहै। धारा ठिठकी सी कविता में कवि रेखांकित करता है मैल से भरी, सहमी, सिकुडी धारा पर जब प्रातःकालीन सूर्य की किरणें पडती हैं तब- उजास नहीं फैलातीं/ खो जाती हैं/ स्याह लहरों में

बृजेश नीरज की छोटी कविताएँ अधिक भावप्रवण और विचार सघन हैं। ऐसी कविताओं में मुख्यतः अनुचिंतन या अनुभूति की प्रधानता होती है। छोटी कविताओं को पढ़कर कवि की भावना के साथ-साथ उनके विचार, पक्षधरता का स्पष्ट पता चलता है। विरोधकविता की ये पंक्तियाँ चित्रमयता, बिम्वमयता और अनुभूतिपरकता के साथ मार्मिक असर छोड़ती हैं- वातावरण में घुले नारे/ खण्डर में पैदा हुई अनुगूँज की तरह/ कम्पन पैदा करते हैं/ सर्द हवाएँ/ काँटों की तरह चुभती हैं/ अँधेरा गहराता जा रहा है मनुष्य विरोधी सत्ता के विरोधमें उठे नारे व्यक्ति के मनःमस्तिष्क में कम्पन पैदा करते हैं, ठीक उसी तरह जिस तरह सर्द हवाएँ काँटों की तरह चुभती हैं। कवि ने संकेत किया है कि अँधेरा गहराता जा रहा हैऔर ऐसे संकटपूर्ण समय में विरोधकी सार्थकता स्वंय सिद्ध है।


वर्तमान समय की सामाजिक-आर्थिक विषमता और उनसे पैदा हुई विसंगति, विद्रूपता और त्रासदी का चित्रण इस संग्रह की कविताओं में है। वर्तमान के कटु यथार्थ को, जीवन यथार्थ की विडम्बना को कवि ने कई बार मार्मिक व्यंग्य के सहारे उकेरा है। आजाद हैंकविता की कुछ पंक्तियाँ इसकी गवाह हैं- पेड़ की फुनगी पर टॅगे/ खजूर/ उसकी परछाई में/ खेलते बच्चे/ सूखे खेत/ कराहती नदी/ बढ़ता बंजर/ लोकतंत्र के गुम्बद के सामने/ खम्बे पर मुँह लटकाए बल्ब

कई बार तकलीफदेह जीवन दृश्यों को देखकर उनका संवेदनशील मन भावुक हो जाता है। असरदार चित्रों- बिम्बों के सहारे कवि ने वर्तमान समय के संकटों और संवेदनहीन सत्ता से उपजी त्रासदी को मार्मिक ढंग से बयान कर दिया है। जीवन संघर्ष की आँच में तपते-जूझते और भूख से छटपटाते, दलित बचपनको देखकर कवि की भावना उमड़ पड़ती है: पैसे के लिए हाथ फैलाते ही/ बिखर गया बाल पिण्ड/ सूखे होठों पर/ किसी उम्मीद की फुसफुसाहट/ आँखों में/ भूख की छटपटाहट/ व्यवस्था के पहियों तले/ दमित बचपन/ बेचैन था वयस्क हो जाने को। यहाँ कवि की कोरी भावुकता ही दर्ज नहीं हुई बल्कि दुखपूर्ण बाह्य जीवन पर उनकी संवेदननात्मक व मानसिक प्रतिक्रिया भी दर्ज हुई है। मई-जून की प्रचण्ड गर्मीं में जबकि लोग घरों में दुबके हैं, कवि देखता है कि- एक आदमी/ सिर पर ईंटें ढोता/ कहीं पिघला न दे उसे भी/ यह गर्मी/ लेकिन शायद/ उसकी आँतों का तापमान/ बाहर के तापमान से अधिक है यहाँ भावना, संवेदना और विचार की घुलावट है तथा निजी अनुभूति का ताप भी है। तभी तो वे अंतर्जगत में मौजूद तीन शब्दसे खुद को दहकता हुआ पाते हैं: आदमी, पेट, भूख/ जाने कब तक लदे रहेंगे/ मेरे कंधों पर

बृजेश नीरज असहज यथार्थ से बचते नहीं है बल्कि उससे मुठभेड़ करते हैं। उनकी कविता यथार्थ से मुठभेड़ की कविता है। वह देखते हैं कि अक्षर, शब्द और भाषा का मनमाना प्रयोग हो रहा है और उन्हें स्वार्थी मठाधीश अपने निजी स्वार्थ पूर्ति का साधन बना रहें हैं- अक्षर रंग बदल रहे हैं/ कथाएँ अर्थ/ नई परिभाषाएँ गढ़ी जा रही हैं/ नए मठ आकार ले रहें है। लेकिन कवि ने यहाँ इशारा तो किया है पर खुलासा नहीं किया है कि ऐसे लोग कौन हैं? उनकी शक्लें नहीं उभर पाई हैं यहाँ। उनकी कविता में यथार्थ की चीड़फाड़ कम है। कई बार यथार्थ का सरलीकरण की प्रवृत्ति कवि में दिखाई देती है। वह यथार्थ की भीतरी तहों को नहीं खोलता: कुछ है जो/ कहने से रह जाता है हर बार

शब्द और भाषा की ताकत और कमजोरी का गम्भीर एहसास कवि को है। वह पाता है कि- चीथडों से झाँकते/ शब्द बेचैन हैंकविता के वर्तमान संकट का अनुभव भी कवि निरंतर करता है। वह पाता है कि कविता कराह रही है/ गली के नुक्कड़ पर पड़ी/ तेज रफ्तार जिंदगी/ रौंदकर चली गई उसे। लेकिन जिंदगी में उम्मीद का दामन मजबूती से थामने वाला कवि, कविता के प्रति भी नाउम्मीद नहीं है। लेकिन अँधेरे को उजालाकहना सच्चाई से मुकर जाना है। यह बात वह जानता है इसीलिए वह सच्चाई बयान करना चाहता है, जिससे जीवन और कविता में दूरी न पैदा हो जाए। उसकी स्वीकोक्ति है: अब, मैं चाहता हूँ/ लिखूँ लालटेन/ लेकिन लिखने के लिए/ खुद लालटेन होना होगा/ पर मैं तो अँधेरे में हूँ/ पिघलता अँधेरा इस संग्रह में एक कविता है- उम्मीद। इस कविता की पंक्तियाँ हैं- हालांकि अँधेरे में हूँ/ लेकिन कुछ रोशनी आ रही है मुझ तक/ सुबह होने को है। ऐसी ही एक कविता है आस। जिंदगी के रास्ते में गहराते कोहरे के बीच चलना है। कवि यह तय कर चुका है क्योंकि जीवन संघर्ष में वह देख चुका है कि पत्तों के ढेर के नीचे/ चीटियाँ रास्ता ढूँढ रही हैं

बृजेश नीरज की कविता जीवन के जीवंत संघर्षों और कार्य-व्यापारों से संयुक्त है। उनकी कविता आसपास के जीवन और घर परिवारों से जुड़ी हुई है। उनकी कविता में आत्मपरकता के अंतर्गत वैयक्तिक अनुभूतियों का जीवन संसार मौजूद है। उसके दुख- शोक में विश्व-व्यथा का बीज मौजूद है। विश्व-व्यथा में कवि के निजी दुख-शोक की अनुभूतियों की छाप है। उनके यहाँ आत्मीयतापूर्ण पारिवारिक जीवन के स्नेह-माधुप और जीवन-संघर्ष के विविध रंग मौजूद हैं। वे कई कविताओं में पारिवारिक कर्तव्याभिमुख भावनाओं और दाम्पत्य प्रेम की भावनाओं की अभिव्यक्ति करते हैं। तुम्हारी आँखों में’, तुम्हारा स्पर्श, ‘विछोह(1,2) जैसी कविताओं में दाम्पत्य प्रेम और लगाव की अभिव्यक्ति हुई है। तुम्हारी आँखों में’, कविता की ये पंक्तियाँ सघन दाम्पत्य प्रेम की साक्षी हैं: तुम हमेशा ही/ एक उम्मीद थी/ मैं ही आँख मूँदे रहा/ अपने सपनों से/ जो हमेशा तैरते रहे/ तुम्हारी आँखों में

बृजेश नीरज भी कविता में गाँव और गाँव के लोगों, अम्मा, बचपन के मित्र तथा सुख-दुख की अर्धागिनी की आत्मीय और जीवंत उपस्थिति है। अपना गाँवकविता में वे स्मृतियों में जीवंत गाँव को याद करते हैं। वे याद करते हैं गाँव के बाग, नदी, हथपुइया रोटी पर नून-तेल से चुपड़कर खिलाने वाली बड़ी अम्मा और गुल्ली डण्डे के खेल को। मित्र के नामकविता में मित्र के लिए हमेशा तत्पर हृदय की मार्मिक अभिव्यक्ति है। बचपन के मित्र से बहुत दिनों बाद मिलने और उसके साथ होने वाले आत्मीय संवाद व आत्मीयता की संवेदनशील अभिव्यक्ति बहुत दिन बाद आएकविता में हुई है। आत्मीय बातचीत की शैली में गाँव-घर-खेत और गाँव के लोगों  के बारे में बताने वाली इस कविता की सहजतापुरअसर है। यह कविता पर्याप्त दिलचस्प और पठनीय है।

बृजेश नीरज की कविताओं में उनकी धार्मिक आस्था, भाग्यवाद और धार्मिक मिथकों-चरित्रों की अभिव्यक्ति हुई है। माँ शब्द दो कविता में वे कहते हैं जन्मा अजन्मा के भेद से परे एक सत्य माँ!“ ‘प्रातःकविता में प्रातःकाल के वर्णन में अक्षत, ‘कुमकुमजैसे शब्दों का इस्तेमाल एक धार्मिक वातावरण खड़ा करता है। धारा ठिठकी सीकविता में वे मैली गंगा से कहलाते हैं- हे भागीरथ’ ! तुम मुझे कहाँ ले आए?’ ‘उस पारकविता में वे अदृश्य रहस्थ के प्रति जिज्ञासा की अभिव्यक्ति करते हैं और मिथकीय पात्र गरूणभी अवतारणा करते हैं। मैं क्या हूँकविता में जगत और आत्म के प्रति अदृश्य, अज्ञात के प्रति जिज्ञासा भाव में उनकी आध्यात्मिक भावना का दर्शन होला है। वर्तमाल जीवन के संकट को मिथक व मिथकीय पात्रों और मिथकीय प्रतीकों द्वारा अभिव्यक्त करने की काव्य प्रवृत्ति राम तुम कहाँ होकविता में बखूबी देखी जा सकती है। जिंदगी कविता में भाग्यवाद की अभिव्यक्ति यों हुई है: जिंदगी हर बार/ दूर छिटक जाती है/ हर बार ढूँढता हूँ/ उसे फिर से/ हाथ की लकीरों में

बृजेश नीरज की कविता का गठन अनुभूति, संवेदना और विचारों के उचित सामंजस्य से मानसिक प्रक्रिया में होता हैं। उनकी कविता में उनकी सफगोई और संवेदनशील मन की अभिव्यक्ति हुई है। उनकी कविता में बिम्बों, मिथकों व प्रतीकों का इस्तेमाल हुआ है, कहीं सटीक और सृजनात्मक तो कहीं लापरवाहीपूर्वक। कविताओं में व्यतिरेक या तार्किक अन्विति का अभाव, अनुभूति की सरलता/ सपाटता/ और एकरेखीय, अनुभूतियों का सरलीकरण, धनीभूत भावना का बिखराव, निपट गद्यात्मकता, अतिभावुकता (सेंटिमेंटलिज्म), विवरणात्मकता आदि के कारण कविता और अभिव्यक्ति प्रभावहीन भी हुई है। इन कमियों के बावजूद उनकी कविता में बोलचाल की भाषा, दिलचस्प बयान, अनुभूति की सच्चाई, भाषिक ऐन्द्रिकता, आत्मीयता, सहजता और भाववेग वर्तमान समय के संकटों को लेकर चिंता और प्रतिबद्धता, विचारों की साफगोई आदि के कारण कई कविताएँ और कवितांश बड़े मार्मिक और प्रभावपूर्ण बन गए हैं। उनकी काव्य भाषा मध्यवर्ग के जीवन-व्यवहार की भाषा है। उनकी कविता एक तरह से संवाद कायम करती है, कभी स्वंय से कभी अन्यों से। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि वे एक संभावनाशील कवि हैं, काव्यक्षमता से परिपूर्ण हैं। आशा है कि आने वाले समय में वे एक महत्वपूर्ण कवि के रूप में निखरकर सामने आएँगे।


-         असिस्टेंट प्रोफ़ेसर, हिन्दी विभाग, डी.ए.वी. पी.जी. कॉलेज, लखनऊ

ई-मेल- priyadarshiajit7@gmail.com

रविवार, 15 नवंबर 2015

प्रदुम्न कुमार सिंह जनवादी लेखक संघ बाँदा के पदाधिकारी व युवा कवि हैं उन्होंने हिमतरु के नए अंक पर संक्षिप्त समीक्षा लिखी है जो गणेश युवा कवि गणेश गनी की कविताओं पर एक संवेदनशील पाठक की प्रतिक्रिया है | इस अंक में प्रकाशित गनी की कविताओं पर प्रदुम्न सिंह अपना अभिमत देने के साथ साथ गनी के व्यक्तित्व का भी मूल्यांकन करतें है आइये आज लोकविमर्श में पढतें है पाठकीय प्रतिक्रिया -----




         हिमतरु का नया अंक और गणेश गनी

आज हिमतरु अक्टूबर२०१५ का अंक पढ़ा और पढ़कर लगा कि गणेश गनी निश्चित रूप से सशक्त हस्ताक्षर है | कविता जीवन का आत्म का संगीत जिसमे अपनी जमीन और अपने परिवेश के प्रति कवि में चाहत होती है  गनी जी ने अपनी कविताओं में इस चाहत के तत्व को  खोजने का प्रयास किया है जिसे अक्सर लोग अनदेखा करते जा रहे है, | प्रेम वह तत्व है जिससे दुनिया की हर अमूल्य वस्तु क्रय की जा सकती है और यह ही वह तत्व है जो हमेशा से काव्य का तत्व रहा है |इसके बिना कविता की कल्पना कोरी बकवास ही होगी अपनी | अपनी जमीन का प्रेम ही कवि को प्रतिरोध की और ले जाता है  | जिस प्रकार कर्कश आवाज भी साज और बाज की संगति पाकर सुरीली धुन में परिवर्तित हो नए भावों की प्रसवनी हो जाती है | प्रकार कविता भी भावों की संगति पा कविता बन जाती है | हम उस समय तक उसको तवज्जो नही देते जब तक दूसरे उसकी सराहना नही करने लगते जैसा कि स्वयं गनी जी ने अपने आलेख में स्वीकार किया है | जब वे कविताएं लिखते थे तब उन्हें उनके अच्छे होने का एहसास भी नही होता था लेकिन जैसे ही पंजाब विश्वविद्यालय की वार्षिक पत्रिका कैम्पस रिपोर्टर में छपी और सराही गयी तो उनके हौसलों के मानो पंख लग गए लेकिन कहते हैं न कि जब “खुसी एकाएक मिल जाती है तो कुछ सूझता नही है न ही समझ में ही आता है क्या किया जाय क्या नही किया जाय” |
   गनी जी भी न चाहकर भी कुछ इसी तरह की उहापोह की स्थिति में कुछ समय के लिए उलझ गए लेकिन अंतस की आवाज को आखिर कब तक दबाया जा सकता था | शीघ्र ही उत्तिष्ठ जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत के सिद्धांत के अनुसार उनका विकसन होना प्रारम्भ हुआ और साहित्य सर्जना की मुस्कुराती आवाज का जादू उन्हें अपनी ओर आकर्षित करता चला गया और गणेश गनी उसके मोह पाश में अपने को बांधते चले गए | इस दौरान उनके मन ने जो स्वीकार किया उसको उन्होंने लिपिबद्ध करते हुये साहित्य की गलियों में अपना सफ़र प्रारंभ किया | स्वछन्द लिखना और किसी धारा में बंधकर लिखना दोनों अलग अलग बाते हैं |
                                                             



  लिख तो कोई भी सकता है लेकिन प्रतिबद्धता के साथ लिखना कठिन कार्य है और यह तब और कठिन साबित होता है जब भौतिकता अपनी चकाचौंध की चमक की छटा सर्वत्र विखेर रही हो | ऐसे ही समय में हिमतरू के माध्यम से निरंजन देव के संपर्क ने मानो उन्हें कुंदन बनने की ओर अग्रेषित कर दिया और अब वे साहित्य के क्षेत्र में लोकधर्मिता की डोर थाम रचनाकर्म  करने को उद्यत हुये | और उसी को थाम वे लगातार रचना कर्म में लगे हुये हैं | उनकी कविताओं में गजब का प्रतिरोध देखने को मिलता है |
दरिया के पार
ऊंची चट्टान पर बैठा वक्त
जो कर रहा था इंतज़ार
उसे जल्दी है उस पार आने की
उसे मालूम हो चुका है
कि बैल उपवास पर है
और दीवार पर टंगा जूंआ
बैलों के गले लगाकर
खीचना चाहता है हल ,,,,
यहाँ पर दरिया के उस पार की संकल्पना एक सकारात्मक संभावना की खोज है और सर्वदा नवीन अभिव्यंजना है जो पीड़ा के संत्रास से मुक्ति की छटपटाहट को दर्शाती है | यद्यप बैल और जुए का सम्बन्ध अनादिकाल से चला आ रहा है लेकिन कवि की अबिभावाना उसमे एक नये आयाम को जन्म देने वाली है |जो आज के पूंजीवादी समय की की सच्छी से रूबरू कराता है कि किस प्रकार पूंजीवादी शक्तियाँ निर्बलों शोषितों एवं प्रकृति की मार से लगभग पूरी तरह से तवाह हो चुके कृषक के शोषण की ओर भी इशारा है किस प्रकार सत्ता से संथ गाँठ कर शोषण के नित्य नूतन रूप अख्तियार कर रहा है और अपनी मोहक चमक में अपने शोषण के ओजोन को छुपा लेता है | युवा आलोचक उमाशंकर सिंह परमार ने और अजित प्रियदर्शी जी ने अपने आलेखों में इस बात का जिक्र किया है | उमाशंकर सिंह ने युवा कवि को प्रतिरोध का कवि कह डाला है तो अजित प्रियदर्शी ने भाषा और बिम्बों को लेकर कई गंभीर बातें की हैं | गनी जी ने अपने वक्तव्य में अपनी रचनाधर्मिता का संकेत दिया है अपने संघर्षों का भी विवरण दिया है | गणेश गनी ने चुनौतीपूर्ण समय में चुनौतियों को ही अपना हमसफ़र बना आगे बढ़ने लगे और देखते ही देखते वे एक सशक्त हस्ताक्षर के रूप में उभर कर हमारे सामने उपस्थित हुये | इस दौरान हुये परिवर्तनों में उन्होंने कभी पीछे मुड़कर नही देखा और अपने उद्देश्य  को लेकर निरंतर गतिमान रहे | उनका काव्य संसार निखरता चला गया और उनकी कविताएं विभिन्न पत्रिकाओं का अलंकरण बनाती और ब्लागों में स्थापित होती गयी आज गणेश गनी एक चर्चित नाम के रूप में हमारे सामने है इसी दौरान हिमतरु ने उन्हें एक गुरुतर भार दिया जो दिखता तो सहज है लेकिन है कठिन वह हिमतरू के दो साहित्यिक अंको के संपादकत्व का गणेश गनी ने इस कार्य को एक चुनौती के रूप में लिया और जिसका परिणाम आपके समक्ष है | गनी ने अपनी कविता में  मिथकों , परम्पराओं , जन संवेदनाओं को  प्रयोग किया है उन्होंने इन उपागमो का सामाजिक ढाँचे की यथार्थ संरचना का सही दस्तावेज बना दिया है | ये कवितायें व्यवस्था विरोधी हैं और काव्य के अभिजात्य मानको का खंडन भी करती हैं | उनमें उत्तेजना की वह मात्रा नही है जो अक्सर ढूंस दी जाती है उतनी ही मात्रा है जो जन को आकर्षित करके समय के बदलते तेवरों को व्यंजित कर सके |
       इन दिनों
   यह हवा का टुकड़ा
   धीरे धीरे बदल रहा है
   हरे पौधों में
   रंग विरंगी तितलियों में
   किताब के पन्नों में छिपी
   रहस्यमयी कहानियों में
   ठहरा हुआ वक्त
   अब पीठ सीधी कर
   फिर से चलने लगा है
   हवा की नमीआँखों से बह रही है
   समुद्र को नमक मिला
   और समय को नमी
   किसी का कर्ज उतर गया
   और कोई ऋणी हो गया
   हवा और समय का यह सोचना
   सरासर गलत हो सकता है |
   उनकी कविता में जीवन  की उपस्थिति है वर्गीय वर्चस्व मे उलझे हुए मानव की उपस्थिति है । उनकी कविता में बदलाव ग्रस्त समाज व पारिवारिक मूल्यों में हुए विघटन से त्रस्त आम जीवन की त्रासद जटिलताओं की गहरी पडताल है। हमारे समय का यथार्थ भीषण और रुग्ण है इसलिए इसका बोध मानवीयता से विगलित दिखाई देता है गनी  की कविताओं का केन्द्र मनुष्य है इसलिए समस्याओं , अत्याचारों ,जैसे वाजिब सवालों को लेकर उनकी कविता अमूर्त संवेदन की भावुक परिणिति में जाकर ढह नही जातीं बल्कि इकहरे निष्कर्षों की स्थापना से बचती हुई आम जन जीवन की वास्तविक कहानी कहने की कोशिश करतीं हैं वास्तविक कहानी के लिए वास्तविक भाषा का प्रयोग यथार्थ बोध को गति प्रदत्त कर देता है कविता प्रयुक्त लोकरूढ शब्दों का प्रयोग उन्हे आज भाषागत मिथ्या फैशनपरस्ती से पृथक करके जनसंवेद कविता की जमीनी रीति से जोड देता है ।
हिमतारु के इस अंक में किशन श्रीमान का आलेख हिंदी के विकास में पत्रकारिता का योगदान हिंदी पत्रिकाओं के विकास का संक्षिप्त लेखा जोखा पेश कर देता है | सत्यपाल सहगल ने अपने आलेख के माध्यम से कविता पर उत्पन्न नए संकटों की बात की है | जयदेव विद्रोही ने गनी की कविताओं की स्थानीयता को रेखांकित किया है हंसराज भारती ने अपने आलेख में पहाड़ी जीवन और कविता की आपसी संगति को रेखांकित किया है | राहुल देव और अविनाश मिश्रा ने गनी जी के व्यक्तित्व और कृतित्व को भली भाँती रेखांकित किया है | सब कुल मिलाकर हिमतरु का  यह अंक गनी जी की महत्वपूर्ण कविताओं व उनकी कविताओं की विषय वस्तु को समझने के लिए बेहतरीन हैं | पठनीय है | अच्छी कवितायें पढवाने के लिए गनी भाई और हिमतरु को धन्यवाद |           

          
                                                      



                                                                    प्रदुम्न  कुमार सिंह
                                                                   जनवादी लेखक संघ बाँदा  
                                                                    मो0-९४५०२२८२४४


मंगलवार, 10 नवंबर 2015


           रश्मि भारद्वाज की कवितायें

इधर कुछ समय से युवा कवियित्री रश्मि भारद्वाज की कविताओं ने सबका ध्यान आकृष्ट किया है । तमाम समकालीन पत्रिकाओं ,व ब्लागों में लगातार छपती रही हैं जिससे उनकी कविता पर विचार भी हुए हैं ।खाश बात ये है कि रश्मि की कविता स्त्री विमर्श के बने बनाए खांचे मे अटकर नही चलतीं आंशिक बाएं ही रहती है जिससे कारण वैचिरिक  असन्तोष और मूल्यहीनता के खिलाफ अस्वीकार का स्वर तमाम बुर्जुवा सन्दर्भों के खोखलेपन का एहसास करा देता है । मृत मान्यताओं द्वारा हर दिन टूटकर बिखरती स्त्री की अन्तर्दशा व आत्मपीडन की भंगिमाएं आज के लेखन मे आम है । पर निजी वैचारिक संरचनाओं के कारण  रश्मि मे ये स्थितियां बदलते मानवीय सम्बन्धों की विक्षुब्ध अभिव्यक्ति बन गयी हैं । आज की एकान्तिक कटी हुई जिन्दगी व सामाजिक विभेदों मे फँसकर घुटती अस्मिताओं का सवाल नवीन सौन्दर्य बोध व नवीन भाषा की मांग करता है रौमैन्टिक भावुकता के दिन अब नही रहे अब यथार्थवादी बौद्दिकता , खरापन बेहद जरूरी है । जिसे रश्मि की कविता मे देखा जा रहा है । रश्मि को पढना जैसे अपने परिवेश झटपटा रहे आम जीवन की पढना है कविता अपने निजी अर्थसंकेतों द्वारा तनाव और विक्षुब्धता को भी संवादी नाटकीयता से भर देती है इसे कला कह लीजिए या 'लोक' से लिए गये शब्दों की विस्तारपूर्ण मुद्राएं । भाषा की साझेदारी अर्थविस्तार की तमाम संभावनाएं उत्पन्न कर देती है । रश्मि की कविताई पर वरिष्ठ आलोचक गणेश पांडेय जी का अभिमत मुझे याद आ रहा है ' रश्मि भारद्वाज नया नाम तो है पर रश्मि के पास कविता का शऊर अधिक है । रश्मि अपनी पीढी में कला के मामले मे सबसे आगे दिखती है । उसे पता है कि भाषा के गैस चूल्हे की आंच कब और कितनी तेज करना है' (यात्रा 10) रश्मि भारद्वाज ने लोकविमर्श के लिए कुछ कविताएं भेजी थी जिन्हे आज प्रकाशित कर रहा हूं । आईए पढते हैं ।चित्र  कुँवर रवीन्द्र जी के हैं


१ जब बहुत कुछ

जब बहुत कुछ हो आस पास
जिसका बदलना हो जरूरी
और जानते हैं आप
कि नहीं बदला जा सकता कुछ भी
तो उपजती है कविता
हताशा है कविता

जब दफ़न करना पड़े हर प्रश्न
और सन्नाटे बुनने लगें उत्तर
घायल करने लगे ख़ुद को
अपना ही मौन
तो लिखी जाती है कविता
सवाल है कविता

जब किश्त दर किश्त
जीवन करता रहे साजिशें
और टूटती जाए उसे सहेजे रखने की हिम्मत
तो बनती है कविता
उम्मीद है कविता

कविता उस छीजती समय की रस्सी पर
पैर जमाए रखने की है कोशिश
जिसके एक और अंत है
तो दूसरी ओर हार


    हमें गढ़ते हैं वो


वह कहते हैं कि नाक की सीध में चलते रहो
यही है रास्ता
दाएँ-बाएँ देखना गुस्ताखी है
और रुकना समय की बरबादी
बस चलते रहो
और हो सके तो मूँद लो अपनी आँखें,
बंद कर लो अपने कान
मत करो प्रश्न
कि हम चल चुके हैं, बस यही है रास्ता  

इस रास्ते पर बिना थके, अनवरत चलते जाने के लिए
उन्होने गढ़े हैं कई सूत्र वाक्य
जो हमारी डूबती आँखों की चमक और
भटकते कदमों की थकान को थाम सके

इस रास्ते पर ठीक ठीक चलते जाने के लिए
उन्होने उधार दी हैं हमें अपनी जुबान, अपनी आँखें
अपने कान, पैर और बाकी सभी आवश्यक अंग
ताकि हम बोले तो उनकी बोली
देखे बस उतना जितना उन्हें जरूरी लगे
और सुने वही जितना सुनना हमें रास्ते पर बनाए रखे

यह बात दीगर है कि
उधार की जुबान से बोला नहीं जाता
सिर्फ हकलाया जाता है
ठीक वैसे ही जैसे किसी और के बताए रास्ते पर
चला या दौड़ा नहीं, सिर्फ रेंगा जाता है
और अपनी आँखें बंद कर लेने का सीधा अर्थ होता है
बंद कर देना अपनी आत्मा के कपाट 

और यह सब करके हम पहुँच पाएँ वहाँ
कि जहाँ तक पहुँच पाएँ हैं वो
अब यह कौन पूछे कि 
कहीं पहुँचने का अर्थ क्या वहीं होता है
जो तय किया है उन्होने   


    सीमा, तुम्हें सलाम


भोर के अंतिम तारे के आंखे मूंदने से पहले ही
वह जिंदा कर देती है, आँगन में पड़े अलसाए चूल्हे को
अपनी हड्डियों का ईंधन बनाकर, उलीचती है ढेर सारा पसीना
तब धधकती है चूल्हे में आग और ठंडी हो पाती है
चार नन्हें मासूमों और दो बूढ़ी ठठरियों के पेट की जलन     

हमारे सम्पन्न देश के मानचित्र से ओझल
एक फटेहाल गाँव में रहती है सीमा
पति के नाम की वैशाखियाँ कभी नहीं पहनी उसने
नहीं जानती वह सप्तपदी के मंत्रों का अर्थ
फिर भी परदेश कमाने गए पति की जगह खड़ी है,
बनकर उसके परिवार का आधार  

बैल की तरह महाजन के खेत में अपना शरीर जोतती
नहीं जानती थकना, रुकना या रोना
जानती है तो बस चलना, बिना रुके, बस चलते रहना  
हर साल, महाजन की रकम चुकाने आया पति
भले ही नहीं कर पाता काबू ब्याज की जानलेवा अमरबेल को  
लेकिन कर जाता है अपनी मर्दानगी का सुबूत पक्का
डाल कर उसकी गोद में पीठ से चिपका एक और पेट
तब भी नहीं रुकती सीमा    
एक दिन के जाये को सास की गोद में लिटा
वह निकल जाती है ,कुछ और रोटियों की तलाश में    

तेलसाबुन विहीन, चीथरों में लिपटा शरीर, सूखा चेहरा, रूखे केश
सीमा नहीं जानती शृंगार की भाषा    
बेमानी है उसके लिए, पेट के अलावा कोई और भूख
लेकिन फिर भी जानती है वह
जब तक गरम गोश्त की महक रहेगी
रात के पिछले पहर बजती रहेगी सांकलें
और वह मुस्कुराएगी छप्पर में खोंसे अपने हँसिये को देखकर    

नई रोशनी से दूर, भारी भरकम शब्दों से बने कृत्रिम विमर्शों से दूर
शाम ढले अपने बच्चों को सीने से लिपटाए, तारों की छाँव में
सुकून की नींद सोती है सीमा    
क्योंकि उसे नहीं है भ्रम, कल का सवेरा लाएगा कोई बड़ा बदलाव
उसे नहीं है इंतज़ार, एक दिन वह ले पाएगी मुक्ति की सांस
क्योंकि नहीं है उसे बैचनी, काट दे वह अपने जीवन की बेड़ियाँ    
वह नहीं जानती समानता के अर्थ, स्वतन्त्रता के मायने    
इस सारी आपा धापी से परे वह अकेले ही
खींच रही है अपने परिवार की गाड़ी, अपने एक ही पहिये के सहारे        

हमारे सम्पन्न देश के एक फटेहाल गाँव में रह रही सीमा
अनजाने में ही रच रही है स्त्री- विमर्श की एक सशक्त परिभाषा
बिना बुलंद किए कोई भी नारा,
बिना थमाए अपने अधिकारों की फेहरिश्त
किसी और के हाथों में  
सीमा, तुम्हें मेरा सलाम  
क्या तुम दे सकती हो
हम तथाकथित स्वतंत्र ,शिक्षित औरतों को
अपनी आधी हिम्मत भी उधार ?


   देवी

दशमी की अंधियारी रात को
उठती थी देवी की सवारी
दुर्गा अस्थान से
नौ दिनों की निरंतर पूजा अर्चना के बाद
ढम ढम बज उठते थे ढ़ोल
चीरते दूर तक फैले सन्नाटे को
विशाल प्रतिमा चौधरी के उदार राजकोष से निर्मित
चुंधियाती थी आँखें अपने दिव्य सौन्दर्य से
माहिषासुर मर्दिनी, लाल आँखों वाली माँ
भय और श्रद्धा से झुके सिर
जल में प्रवाहित होने से पहले
अंतिम विदा कहने
खोईंछे में दूभी- धान भरने
आती थी अपनी सवारी के साथ चौधरी की हवेली पर

घूँघट में रहने वाली चिंतामनपुर वाली
आम औरत नहीं थी
जो मुँह उठाए देख आती हैं मेला-ठेला
खा आती हैं जलेबी, और भर आती है कलाइयाँ दर्जन भर चूड़ियों से
वह प्रतिष्ठापित थीं चौधरी की हवेली में
उसके भार से लदी, झुकी 
वाक्य पूरा होने से पहले देख लेती थी कनखियों से चौधरी का चेहरा
पढ़ लेती थीं कि स्वीकृति के चिन्ह हैं या नहीं
उस एक रात वह भी बन जाती थीं देवी

खुल उठते थे चटाक- चटाक सभी देहबंध
खुले केश, लाल नेत्र अंगारों से दहकते
जैसे अब तक हृदय में समेट रखी
सभी कामनाओं को एक साथ धधका दिया हो
और उसके अंगारे चमक रहें हों आँखों में
दह –दह
देखो मत, जल जाओगे
सिर झुका बैठ जाता था सारा घर  
चरणों पर लोट रहे होते चौधरी
क्षमा माँ ! क्षमा !
मुझ नराधम को दे दो क्षमा
क्षमा कि तुम्हें मैं नहीं दे सका संतान
और बांझ कही जाती हो तुम
क्षमा कि विवाह के दस सालों बाद भी
नहीं जान पायी तुम देह सुख
क्षमा कि जड़ दिया तुम्हें तालों में
जहां हवा भी नहीं आती मुझसे पूछे बिना

चट चट चटाक पड़ती रहती थी लातें- थप्पड़
और भाव विहल, लीन मग्न चौधरी
झटके से आकर पकड़ता था गबरू जवान ढोलिया
जो जानता था देवी उतारने का मंत्र
मुस्कुरा उठती थी देवी
पान, फूल, इत्र, मिष्ठान
धूप, रूप, स्वाद , गंध
खुल जाते थे तन और मन के बंद पड़े रेशे-रेशे

दशमी की उस गहन रात्रि में
दुर्गा अस्थान से उठ कर आती थीं देवी
साल भर के लिए जल में विलय होने से पहले
दे जाती थी किसी को जीवन 
एक रात का 



    चरित्रहीन

बड़ी बेहया होती है वो औरतें
जो लिखी गयी भूमिकाओं में
शातिराना तरीके से कर देती है तब्दीली
और चुपके से तय कर जाती  हैं सफ़र
शिकार से आखेटक तक का
अदा से पीछे करती है
माथों पर लटक आए रेशमी गुच्छे
और मुस्कुरा उठती हैं लिपस्टिक पुते होठों से
सुनकर जहर में भिगोया संबोधन चरित्रहीन

बड़ी भाग्यशीला होती हैं वो औरतें
जो मुक्त हैं खो देने के डर से वो तथाकथित जेवर
जिसके बोझ तले जीती औरतें जानती हैं
कि उसे उठाए चलना कितना बेदम करता जाता है पल-पल उन्हें 
मुक्त , निर्बंध राग सी किलकती यह औरतें
जान जाती हैं कि समर्पण का गणित है बहुत असंतुलित
और उनका ईश्वर बहुत लचीला है

बड़ी चालाक होती है ये बेहया औरतें
कि जब इनके अंदर रोपा जा रहा होता है बीज़ दंभ का
यह देख लेती हैं शाखाएँ फैलाता एक छतनार वृक्ष
और उसकी सबसे ऊंची शाख पर बैठी छू आती हैं सतरंगा इन्द्रधनुष
उन्हें पता है कि जड़ों पर नहीं है उनका जोर
खाद-पानी मिट्टी पर कब्जा है बीज के मालिक का
शाखाओं तक पहुँचने के हर रास्ते पर है उसका पहरा
लेकिन गीली गुफाओं में फिसलते वह ढीली करता जाता है रस्सियाँ
और खुलने लगते हैं आकाश के वह सारे हिस्से
जो अब तक टुकडों में पहुँचते थे घर की आधी खुली खिडकियों से 

सुनते हैं, ज़िंदगी को लूटने की कला जानती हैं यह आवारा औरतें
इतिहास में लिखवा जाती हैं अपना नाम
मरती नहीं अतृप्त
तिनके भर का ही सही
कर देती हैं सुराख़ उसूलों की लोहे ठुकी दीवारों में 
और उसकी रोशनी में अपना नंगा चेहरा देखते
बुदबुदा उठते हैं लोग चरित्रहीन
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     माफ करना मुझे

कच्ची मिट्टी सी होती हैं अच्छी बेटियाँ,
पकाई नहीं जाती आंच पर
गढ़ा जाता है उन्हें ताउम्र ज़रूरत के हिसाब से
फिर एक दिन बिखेर कर
कर दिया जाता है हवाले नए कुम्हार के
कि वह ढाल सके उसे अपने रूप में

मुंह में ज़ुबान नहीं रखती अच्छी पत्नियाँ
उन्हें होना चाहिए मेमनों की तरह
प्यारी, मासूम, निर्दोष, असमर्थ
जो ज़िबह होते हुए भी
समेटे हों आँखों में करुणा, क्षमा और प्रेम

अच्छी माएँ, निर्मित करती हैं परिवार का भविष्य
खींचने के लिए एक चरमराती गाड़ी
वह तैयार करती है बैलों को
खत्म कर देती है कोख में ही
कितनी धड़कनें
एकाध आँसुओं के अर्घ्य से

माफ करना मुझे,
कि मैंने नहीं सुनी तुम्हारी सीख
कि मुझे भी होना था
एक अच्छी बेटी, पत्नी या माँ
कि इन्हीं से बनता है घर

दरअसल मैंने सुन ली थी
उन घरों की नींव में दफन
सिसकियाँ और आहें,
कि मैंने समझ लिया था कि
उन दीवारों मे चुनी जाती हैं कई ज़िंदा ख्वाहिशें
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     कुछ दिन

कुछ दिन बड़े कठिन होते हैं
जब मेरी आँखों में तैर जाते हैं कामना के नीले रेशे
लाल रक्त दौड़ता है दिमाग से लेकर
पैरों के अंगूठे तक
एक अनियंत्रित ज्वार
लावे सा पिघल-पिघल कर बहता रहता है
देह के जमे शिलाखंड से
मैं उतार कर अपनी केंचुली
समा देना चाहती हूँ खुद को
सख्त चट्टानों के बीच
इतने करीब कि वह सोख ले मेरा उद्दाम ज्वर
मेरा सारा अवसाद, मेरी सारी लालसा  
और मैं समेट लूँ खुद में उसका सारा पथरीलापन 
ताकि खिल सके नरम फूल और किलकती कोमल दूब

कुछ दिन बड़े कठिन होते हैं
जब भूल कर और सब कुछ
मैं बन जाती हूँ सिर्फ एक औरत
अपनी देह से बंधी
अपनी देह से निकलने को आतुर
चाहना के उस बंद द्वार पर दस्तक देती
जहां मेरे लिए अपनी मर्जी से प्रवेश वर्जित है
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८-बिजूका

देह और मन की सीमाओं में
नहीं बंधी होती है गरीब की बेटी
अपने मन की बारहखड़ी पढ़ना उसे आता ही नहीं
और देह उसकी खरीदी जा सकती है
टिकुली ,लाली ,बीस टकिये या एक दोने जलेबियों के बदले भी

गरीब की बेटी नहीं पायी जाती
किसी कविता या कहानी में
जब आप उसे खोज रहें होंगे
किताबों के पन्नों में
वह खड़ी होगी धान के खेत में,टखने भर पानी के बीच
गोबर में सनी बना रही होगी उपले
या किसी अधेड़ मनचले की अश्लील फब्तियों पर
सरेआम उसके श्राद्ध का भात खाने की मुक्त उद्घोषणा करती
खिलखिलाती, अपनी बकरियाँ ले गुजर चुकी होगी वहाँ से

आप चाहें तो बुला सकते हैं उसे चोर या बेहया
कि दिनदहाड़े, ठीक आपकी नाक के नीचे से
उखाड़ ले जाती है आलू या शक्करकंद आपके खेत के
कब बांध लिए उसने गेहूं की बोरी में से चार मुट्ठी अपने आँचल में
देख ही नहीं सकी आपकी राजमहिषी भी

आपकी नजरों में वह हो सकती है दुष्चरित्र भी
कि उसे खूब आता है मालिक के बेटे की नज़रें पढ़ना भी
बीती रात मिली थी उसकी टूटी चूड़ियाँ गन्ने के खेत में
यह बात दीगर है कि ऊँची – ऊँची दीवारों से टकराकर
दम तोड़ देती है आवाज़ें आपके घर की
और बचा सके गरीब की बेटी को
नहीं होती ऐसी कोई चारदीवारी

गरीब की बेटी नहीं बन पाती
कभी एक अच्छी माँ
कि उसका बच्चा कभी दम तोड़ता है गिरकर गड्ढे में
कभी सड़क पर पड़ा मिलता है लहूलुहान
ह्रदयहीन इतनी कि भेज सकती है
अपनी नन्ही सी जान को
किसी भी कारखाने या होटल में
चौबीस घंटे की दिहारी पर

अच्छी पत्नी भी नहीं होती गरीब की बेटी
कि नहीं दबी होती मंगलसूत्र के बोझ से
शुक्र बाज़ार में दस रुपए में
मिल जाता है उसका मंगलसूत्र
उसके बक्से में पड़ी अन्य सभी मालाओं की तरह

आप सिखा सकते हैं उसे मायने
बड़े – बड़े शब्दों के
जिनकी आड़ में चलते हैं आपके खेल सारे
लेकिन नहीं सीखेगी वह
कि उसके शब्दकोश में एक ही पन्ना है
जिस पर लिखा है एक ही शब्द
भूख
और जिसका मतलब आप नहीं जानते

गरीब की बेटी नहीं जीती
बचपन और जवानी
वह जीती है तो सिर्फ बुढ़ापा
जन्म लेती है, बूढ़ी होती है और मर जाती है
इंसान बनने की बात ही कहाँ
वह नहीं बन पाती एक पूरी औरत भी
दरअसल, वह तो आपके खेत में खड़ी एक बिजूका है
जो आजतक यह समझ ही नहीं पायी
कि उसके वहाँ होने का मकसद क्या है

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रश्मि भारद्वाज जानी मानी युवा कवियित्री और मेराकी की संचालक हैं