शनिवार, 26 अक्तूबर 2019


मेरे लिए लोक अब सर्वहारा का पर्याय है – विजेंद्र



                    

विजेन्द्र अस्सी की उमर पार कर चुके हैं हिन्दी की पुरानी पीढी के कवि हैं ।विजेन्द्र का रचनात्मक जीवन साठ के दशक से प्रारम्भ हुआ और आज तक निरन्तर लिख रहे हैं । जिस पीढी मे धूमिल , भगवत रावत , मलय , धनंजय वर्मा , नीलकान्त , नामवर सिंह , केदारनाथ सिंह , कुँवर नारायण थे विजेन्द्र भी उसी पीढी के हैं ।हिन्दी कविता में लोकधर्मी आन्दोलन के अग्रदूत हैं जिसके लिए उन्होने अपने समय मे कृतिओर नामक पत्रिका निकाली और बहुत से लेखकों की खोज की उनसे लिखवाया तथा आगे बढाया आज की पीढी मे बहुत से लेखक और कवि हैं जो विजेन्द्र की देन हैं ।विजेन्द्र ने लोक को लेकर अपना आलोचनात्मक लेखन भी किया । अनुवाद भी किया तथा सहित्य की कलावादी प्रवृत्तियों का विरोध भी किया । विजेन्द्र का साक्षात्कार हमारे समय के जरूरी कवि चंद्रेश्वर ले रहे हैं । यह काम बडा कठिन था चंद्रेश्वर के पास साहित्य की व्यापक समझ है और वह खुद बडे लेखकों और आलोचकों के आत्मीय रहे तथा विरोध व प्रतिरोध का दंश भी झेला । चंद्रेश्वर की आलोचना और कविता पर कई पुस्तके प्रकाशित हैं वह लगातार पत्र पत्रिकाओं में छपते रहते हैं । तथा नब्बे के दशक का कवि होने के बावजूद भी वह आज भी निरन्तर सक्रिय है और लोकधर्मी आन्दोलन के लिए समर्पित हैं ।

                                      विजेंद्र
           

                                  विजेंद्र   की :            चंद्रेश्वर से बात-चीत
 चंद्रेश्वर - आपने हिंदी में पहली कविता कब और किस उम्र में लिखी थी? वह कविता तुकांत थी या छंद-बद्ध

विजेंद्र -  मैंने पहली कविता 1956 में लिखी . उस समय मेरी उम्र लगभग 22वर्ष रही होगी . उस समय मैं कशी- हिन्दू विश्वविद्यालय  में स्नातक छात्र था . कविता यहाँ दे रहा हूँ . यह कविता मेरी  ‘ प्रतिनिधि कविताएँ ‘  संकलन (किताब-घर ,प्रकशन ) में प्रथम कविता है . कविता गीत शीर्षक से प्रकाशित है . यह कविता उसी वर्ष कोलकता से प्रकाशित होने वाली पत्रिका ,’ ज्ञानोदय में प्रकशित भी हुई थी . कविता इस प्रकार है फाँसोगे / सोने के फंदे में
वो उड़ते भोले पंख नहीं / फासो ! / तोड़ोगे / निष्ठुर प्रहारों से / वो शीशे का महल नहीं / तोड़ो ! / बेधोगे
नयनों की कोरों से/ वो इतना भोला प्यार नहीं / बेधो  ! / गाओगे / झूठे अनगिन विश्वासों में / वो ऐसा कल्पित गीत नहीं / गाओ !/ आभाव के बाँधों से / वो मंथर गंगा धार  नहीं / रोको ! / वो गीत है शाश्वत / चेतन है / जीवन मेरा / और तुम्हारा / और सभी का !”

इस समय थाजब कि कवि त्रिलोचन का अभिन्न और आत्मीय सान्निध्य मुझे मिल चूका था . वे मेरी हर नई कविता को देखते थे . सुधार भी सुझाते थे . मैंने उनको ही अपना काव्य गुरु माना . और आज तक भी मानता हूँ . मैं कशी हिन्दू विश्वविद्यालय में 6 वर्ष रहा .  इन्टर मीडियट से परास्नातक तक . त्रिलोचन ने मेरा मार्गदर्शन किया . और मैं इधर-उधर भटकने से बच गया . उन्हों ने कविता के पथ को बहुत ही कठिन पथ बताया . और यह भी कि अगर कविता को गंभीरता से ऊँचाई तक ले जाना है तो प्रत्यक्ष परोक्ष अनुभव को गहन और व्यापक बनाना होगा . दूसरे संस्कृत का अच्छा  ज्ञान जरुरी है . क्योंकि हर कवि के लिए अपने CLASSICS को आत्मसात करना चाहिए .  परम्परा के गहरे ज्ञान के बिना बड़ी काव्य-कृति संभव नहीं .  मैं अंग्रेजी का छात्र था . मुझे कुछ संदेह हुआ. शायद मैं कविता को आगे न ले जा पाऊँ .  बनारस में आए दिन काव्य गोष्ठियाँ होती थीं . मैं उनमें शिरकत करता था . संजोग से इन गोष्ठिओं में गुरुवर रामदरश से भेंट हुई . उन्हों ने मेरी काव्य रूचि  देख कर लिखने को प्रोत्साहित किया . अत: मेरा मन बना कि जीवन में व्यवस्थित होकर कविता को ही पूरा समर्पण देकर आगे बढ़ना है . अनेक बाधाओं , उपेक्षाओं और तीखे विरोधों के बावजूद कविता ही मेरा जीवन है . और चित्र-कला उसकी पूरक .

चंद्रेश्वर- आप सबसे पहले किस साहित्यिक पत्रिका में प्रकशित हुए ? आपके आरंभिक कवि कर्म पर पहले-पहल किस संपादक की पारखी नजर पड़ी ?



                                     चंद्रेश्वर

विजेंद्र- सबसे पहले ज्ञनोदय  में प्रकशित हुआ  .  बनारस में कवि विष्णुचंद्र शर्मा मेरे वरिष्ठ सहपाठी रहे . वे भी त्रिलोचन के बहुत करीब थे . उन्होंने कवि नाम से बहुत ही लघु आकर की पत्रिका प्रकाशित की थी . विष्णु जी ने मेरी एक कविता उसमें  प्रकशित की थी .  उस पत्रिका में नामवर सिंह ने सबसे पहले मुक्तिबोध पर एक महत्वपूर्ण किन्तु संक्षिप्त आलेख लिका था . विष्णु जी ने आचार्य हजारीप्रसाद जी को प्रकशित किया था . केदारनाथ सिंह , शमशेर , त्रिलोचन आदि कविओं को विष्णु जी ने प्रकाशित किया . यह पत्रिका एक वर्ष  तक नियमित प्रकशित होती रही . बाद में बंद हो गई .
संपादकों की पारखी नज़र किसी नए कवि पर पड़ती हो !  मुझे संदेह है . इसके लिए बहुत संघर्ष करना पड़ता है . 1956 से लेकर 1960 तक  लगातार कल्पना पत्रिका में कविता भेजता रहा . बराबर लौटती रही . 1960 में कल्पना में मेरी दूसरी कविता प्रकाशित हुई .उन दिनों में कल्पना ‘ ( हैदराबाद ) ही अकेली मानक पत्रिका थी . उस में  प्रकशित होने का अर्थ था कि कवि को स्वीकृति मिल रही है . लोग उसे कवि रूप में पहचानते  थे .


 चंद्रेश्वर-  आपके कवि कर्म पर सबसे पहले किस महत्वपूर्ण आलोचक ने ध्यान दिया ?

विजेंद्र -आपको मैं बता दूँ मैं बहुत ही उपेक्षित कवि रहा हूँ . कारण ? मैं अपनी पत्रिका , ‘ कृतिओर के माध्यम से  उन शिखर आलोचक कहे जाने वाले आलोचकों के ,’ कविता के नए प्रतिमान की स्थापनाओं को खंडित करता रहा . क्योंकि ये सब अमरीकी नव समीक्षा से उत्खनित विचार हैं . इस से बहुत से लोग नाराज़ हुए . दू सरे , मैंने आधुनिकतावादी कविओं यथा विजयदेव  नारायण साही , रघुवीर सहाय , कुंवर नारायण , केदारनाथ सिंह तथा श्रीकांत वर्मा आदि का अग्रगामी दृष्टि से पुनर्मूल्यांकन कराया . ये कवि छाये हुए थे . और निराला की प्ररम्परा के कवि त्रिलोचन , नागार्जुन और केदारनाथ अग्रवाल अदि पृष्ठ-भूमि में डाल दिए गए थे . इस से आधुनिकतावादी , जिनका वर्चस्व बना हुआ था , बहुत नाराज़ हुए . लेकिन पाठकों ने इसका स्वगत किया . बहरहाल , 1990 के आस-पास मुझे प्रथम पहल सम्मान मिला .  ‘ पहल के संपादक ज्ञान रंजन हैं . मुझे आश्चर्य हुआ !   उस से पहचान बनी . 1999 में सुपरचित समीक्षक  प्रो O रेवतीरमण  ( मुजफ्फरपुर , बिहार , की एक पुस्तक आई ,’ कविता में समकाल ‘ . इसमें उन्हों ने 30 पृष्ठीय एक आलेख मेरी कविता पर लिखा .शीर्षक है , ‘ शब्द जन्म लेते हैं , जीवन क्रियाओं से ‘  .  यह आलेख मेरे छटे कविता संग्रह , ‘ ऋतु  का पहला फूल तक ही सीमित है .अब तो मेरे २३-24 कविता संग्रह आ चुके हैं . और 13 भागों में काव्य रचनावली भी . पर मेरा अपना विचार  है कि इतना अच्छा आलेख मेरी कविता पर इतने साहस से अभी तक किसी ने नहीं लिखा
.कविता में समकाल ‘  पुस्तक का प्रकाशन , रामकृष्ण प्रकाशन विदिशा ( म .प्र.) से हुआ है . अब प्रकाशन बंद हो चूका है. और पुस्तक भी OUT-OF-PRINT है .

 चंद्रेश्वर- आप कविता के लिए भाव  , विषय वस्तु  , कथ्य , या अंतर्वस्तु को ज्यादा महत्वपूर्ण मानते हैं या कला-पक्ष  यानी शिल्प विधान को ?

विजेंद्र -ये दोनों ही चीजें महत्वपूर्ण हैं . समर्थ और सारगर्भित कथ्य को अगर उत्कृष्ट शिल्प और रूप-विधान में न ढाला गया तो महत्वूर्ण कथ्य भी निष्प्रभावी होगा . और अगर हम सिर्फ शिल्प सौष्ठव पर ही ध्यान देंगे तो कविता दुर्बल  होगी . अत : कविता में कथ्य और शिल्प का सानुपातिक और संगति-मूलक  विधान आवश्यक है . कथ्य और रूप के सम्बन्ध द्वंद्वात्मक होते हैं . अर्थात ये एक दूसरे को प्रभावित करते हैं . कथ्य को रूप ( FORM )  से अलग नहीं किया जा सकता . इसी प्रकार रूप को कथ्य से . जैसे आत्मा और शरीर का सम्बन्ध है . ध्यान रहे , कविता एक कला कृति भी है . अत: वह कलाकौशल और शिल्प-सौष्ठव की माँग करती है .कलात्मक शिल्प के अभाव में  महत्वपूर्ण कथ्य भी अनर्गल लगने लगता है .

 चंद्रेश्वर- हमारी सभ्यता संस्कृति में काव्य सृजन  में छंद-विधान या गेयता को ज्यादा महत्व मिला  है . आदि कवि वाल्मीकि से लेकर आधुनिक काल तक . क्या आपको ऐसा महसूस  नहीं होता कि हिंदी में ‘  नई कविता से लेकर समकालीन कविता तक के कविओं की कविताएँ गद्य विधाओं की तरह पाठ्य भर बनकर रह गई हैं . यानी प्रकाशित संग्रहों में कैद होकर दम तोड़ रही हैं .इस पर विस्तार  से प्रकाश डालें ?

विजेंद्र -इस प्रश्न में कई बातें एक साथ कही और पूछी गई हैं . छंद बद्ध पद्य जरुरी नहीं कविता हो . अर्थात छंद एक अनुशासन है जो काव्य रूप को व्यवस्थित करता है . लेकिन वह कविता को रचता नहीं .  हजारो छंद ऐसे मिल सकते हैं जहाँ कविता अनुपस्थित है  .   दूसरे , छंद मैं इतने बंधन होते हैं कि जीवन और जगत की प्रचुरता को हम सहज और मुकम्मिल तौर पर व्यक्त नहीं कर सकते . निराला ने छंद के बारे में कुछ महत्वपूर्ण बातें कही हैं . “  ये सब छंद नियमों से बंधे हैं , अतएव इन नियमों  में बंध  कर जो कविता की  जाएगी वह मुक्त काव्य न हो सकेगी .जिस प्रकार मुक्त-पुरुष संसार  में किसी नियम के वशीभूत नहीं रहते  , किन्तु उन नियमों की सीमा पार कर सदा मुक्ति के आनंद में विहार करते हैं , उसीप्रकार मुक्त कवि भी अपनी कविता को पिंगल के बंधन से नहीं  रचना चाहते .भारती के सूक्ष्म भंडार के अधिकारी वे अमर कवि उसे सम्पूर्ण नियमों से मुक्त कर देते हैं . उनकी कविता परिमित नहीं , -अमित होती है . वे पराधीन नहीं स्वाधीन हैं . वह एक संकीर्ण सीमा में विहार करनेवाले नहीं अनन्त और असीम ब्रह्माण्ड उसका क्रीड़ा स्थल है .... और आगे निराला ने कहा है , “  महापुरुष नियमों और बंधनों से स्वतंत्र रहने पर भी , दुराचारी , या अत्याचारी नहीं कहला सकते किन्तु वे पुरुष की यथार्थ सत्ता का बोध  कराते हैं , उसी तरह कवि के मुक्त-काव्य में नियमों और बंधनों का अनुशासन न रहने पर भी वह काव्य का यथार्थ रूप है , किन्तु उस से उच्छ्रंखलता, दुराचार या किसी अन्य दोष की उद्भावना नहीं हो सकती .....इस ढँग की कविता अर्थात मुक्तकाव्य इस समय संसार की प्रतिष्ठित सभी भाषाओँ में प्रचलित हो गया है ........छंदोबद्ध काव्य में कृत्रिमता की कलई चाहे कुछ देर से खुले , परन्तु मुक्त-काव्य में तो वह तत्काल पकड़ में आ जाती है . ....दुःख के साथ कहना पड़ता है कि हिंदी में कविता का मुक्त स्वरूप देखने के लिए अभी हमें बहुत दिनों तक अपेक्षा करनी होगी . ( निराला रचनावली , भाग -5 , पृष्ठ 163 ) यहाँ निराला कविता को छंद के बंधन से मुक्त करने की बात को मनुष्य की मुक्ति से जोड़ कर देख रहे हैं . छंद के कृत्रिम बंधन को छिन्न-भिन्न कर निराला ने नया मुक्त छंद आविष्कृत किया . जिसका विकास निराला से बाद के कवियों त्रिलोचन , नागार्जुन , केदारनाथ अग्रवाल , कुमारेन्द्र पारसनाथ सिंह , कुमार विकल , भगवत रावत , विष्णुचंद्र शर्मा , मलय , चंद्रकांत देवताले आदि में देखा जा सकता है | गेयता कविता में संगीत की गेयता से अलग और भिन्न चीज़ है . संगीत में गेयता एक अनिवार्य तत्व है . लेकिन कविता में गेयता का रिश्ता उसकी लय से है . मीरा, सूर , तुलसी , कबीर अदि संत कविओं की कविता को  संगीत के नियमों में बांधकर संगीत का विधान है . लेकिन वहाँ कविता  क्षतिग्रस्त हुई है . हम वहाँ   काव्यार्थ को नहीं बल्कि संगीत और  गायन से आत्मविभोर हो उठते हैं . कविता और संगीत में हमें भेद करना होगा . कविता का बलाघात अर्थ-ध्वनि पर होता है . संगीत आरोह-अवरोह द्वारा नियंत्रित गान पर जोर देता है .  
निराला ने यह भी कहा है , “ हिंदी के कविओं ने इन नवीन छंदों की सृष्टि की थी , उसी तरह अपनी ही विचार-धारा के अनुसार यदि यह मान लें कि वर्तमान युग के नये कवि वर्तमान  शैली की सुविधा के विचार से नवीन नवीन छंदों ( सम और विषम  ) की सृष्टि कर रहे हैं इस से आपकी क्या हनि है क्या आप सृष्टि का क्रम रोकना चाहते है ? या छंदों के पुराने आवर्त में ही कविओं को पैर कर उनसे कवित्व रूपी तेल निकालना  चाहते है .” ( निराला रचनावली , भाग -५ , पृष्ठ 160 ) दरसल निराला छंद को जड़ नहीं मानते . ऐतिहासिक काल क्रम , जीवन और समाज में परिवर्तन के साथ कविता और उसके शिल्प विधान में भी परिवर्तन होता है . इसी लिए निराला ने  छंदों की व्यापक भूमि में मुक्त-छंद को आविष्कृत किया . मुक्त-छंद भी एक छंद है . कुच्छ लोगों ने इसे  छंदसे मुक्ति समझ कर इसका  का बेहद दुरूपयोग किया है . उन्हों ने कविता को छंद-मुक्त मा                           न कर उसे लद्धड़ गद्य बना दिया . मुक्त-छंद में अनेक परम्परित छंदों का स्वत: ही समाहार हो जाता है . अनुशासित और शिल्प-कौशल युक्त मुक्त-छंद लिखना परम्परित छंद लिखने से कहीं मुश्किल है .| दूसरा पक्ष आपके सवाल का समकालीन कविओं में छंद की अवहेलना या अराजकता को लेकर है . मेरी आपसे यहाँ विनम्र असहमति है . समकालीन कविओं ने मुक्त-छंद के अनुशासन में रहकर ही उत्कृष्ट कविता लिखी है . मैं कविओं की बात कर रहा हूँ . कविता लिखने वाले हर व्यक्ति की नहीं . क्योंकि मैं इसे कई बार कह चूका हूँ कि कविता लिखनेवाला हर कोई कवि नहीं होता . समकालीन कविता के प्रमुख कवि नागार्जुन हैं . त्रिलोचन हैं . केदारनाथ अग्रवाल हैं .  शील हैं . कुमारेन्द्र , कुमार विकल , भगवत रावत , चंद्रकांत देवताले हैं . विष्णुचंद्र शर्मा हैं . मलय हैं . इन सभी ने मुक्त-छंद का उचित प्रयोग किया है . ध्यान रहे गद्य और कविता का विरोध नहीं है. क्योंक आज हम कविता बो-चल के गद्य में ही लिखते हैं . कवि के सामने सबसे बड़ी चुनौती है गद्य में लिख कर काव्य रचना करना . इस से यह भी ध्वनी निकलती है कि कविता के उकरण गद्य से भिन्न और अलग हैं . आखिर गद्य कविता में कैसे रूपांतरित हो जाता है .? यह बिलकुल अलग प्रश्न है . और विस्तृत विमर्श की मांग करता है .

आपने कहा है कि कविता संकलनों में कैद होकर दम तोड़ रही हैं ? यह प्रशन कविता और पाठकों में उसकी लोक-प्रियता से  जुड़ा है . इसका गहरा सम्बन्ध आज की सामाजिक व्यवस्था से  है . पूँजी-तंत्र सबसे पहले हमारी सृजनशील  अभिरुचि और रचनात्मकता को नष्ट करता है . कविता तो बहुत ही उच्च रचनात्मक संस्कार की मांग करती है. पूँजी-तंत्र में अधिकांश लोग गंभीर चीज पढने से कतराते हैं . उन्हें सस्ता मनोरंजन चाहिए . प्रदूषित हास्य . या फिर जादू और तिलस्म की बातें . अत: उत्कृष्ट रचना जैसे विरल है वैसे ही उसके पाठक भी . तुलसी ने संस्कारवान पाठक के लिए ,’ वर-पुरुष की संज्ञा दी है . लेकिन फिर भी कविता के गंभीर पाठक हैं. और वे श्रेष्ठ कविता को खोज कर पढ़ते हैं
दूसरी बात है , बाज़ार और व्यापार का प्रभाव . प्रकाशक  अपने लाभ के लिए पुस्तक की कीमत इतनी अधिक रखते हैं जिसे सामान्य पाठक चाह कर भी नहीं खरीद सकता . मुझेसे अनेक लोगों ने कहा है कि वे मेरे साहित्य को समग्र पढना चाहते हैं . पर मूल्य इतना है कि उनकी वित्तीय स्थिति उन्हें विवश किये है . उदाहरण के लिए जब मेरी आत्मकथा ,’ शेष है है अभी समर प्रकशित हुई तो बहुत लोगों ने उसे पढने की उत्सुकता व्यक्त की . मैंने उन्हें  प्रकाशक के संपर्क बिंदु दिया . लेकिन जब उन्हें पता लगा की उसका मूल्य 1500 / रु . है तो वे  अचंभित होकर रह गए . प्रकाशक से मैंने यह भी कहा कि मुझे कोई रॉयल्टी नहीं चाहिए .पर पुस्तक का मूल्य कम हो. पर प्रकाशक के तर्क अपने लाभ के हित में अधिक मूल्य का औचित्य सिद्ध कर देते हैं . इसका दुष्परिणाम लेखक को उठाना पड़ता है . वह अपने अपेक्षित पाठकों तक पहुँच ही नहीं पता . लेखक खरीद कर कितने मित्रों को पुस्तक उपलब्ध करा सकता है . पेपर-बेक छापने को प्रकाशक तैयार नहीं होता . क्योंकि पुस्तकालयों में पेपर-बेक नहीं खरीदी जातीं . तो एक कुचक्र बना हुआ है . उसे  तोड़ना लेखक के वश में नहीं . मुझे ज्ञात है जब सोवियत-संघ में समाजवाद था तब सबसे कम मूल्य उत्कृष्ट कृतिओं का ही होता था . यह व्यवस्था चाहती ही नहीं कि जनता सुशिक्षित हो कर अपने को संस्कारित करे . औरस्वयं वर्ग चेतन बनाये . ये ऐसी बातें हैं जो ऊअर से नहीं दिखाई देती .लेकिन कुचक्र का जालल अदृश्य बिछा हुआ है .
अंग्रेजी भारत में अपना साम्राज्य बनाये हुए है . लोग अंग्रेजी की किताबें तो उच्च मूल्य पर भी खरीद लेते हैं . पर हिंदी की नहीं . मध्यवर्ग और उच्च मध्य-वर्ग के घरों में अंग्रेजी पुस्तकों का अम्बार होगा .पर हिंदी की पुस्तकें देखने को नहीं मिलेंगी . यह सांस्कृतिक पिछड़ेपन की निशानी है . हिंदी पट्टी उत्तर भारत में सबसे अधिक है .बंगाली अपनी भाषा को बहुत प्यार करते हैं . अपने कविओं को सम्मान देते हैं . मैंने श्रमिकों को भी रविन्द्रनाथ ठाकुर के गीत गाते सुना है .

 चंद्रेश्वर- हिंदी कविता की मुक्ति कैसे संभव है ? उसका भविष्य छंद से जुड़कर है  या गद्यात्मकता में ? जिस तरह हिंदी में  समकालीन कविता के नाम पर अभिव्यक्ति की शैलियो को लेकर जटिल-बौध्हिक और गद्यात्मक उपक्रम हुए हैं , उनसे कविता अपने सामान्य पाठकों /श्रोताओं से दूर हुई है . अभी हाल ही में दिवंगत कवि विष्णु खरे हों या दिल्ली के  अन्य नेता  या दादा टाइप कविओं में , असद जैदी या देवी प्रसाद मिश्र सबने कविता को चिंतन परक और गद्य मय बनाने की कोशिश की  है .ऐसे में अच्छी और सच्ची कविता जो  जन या लोक से जुड़ सके उसका भविष्य किधर होकर संभव है .---कोरा गद्य , कोरा विचार बयान , या गेयता और  छंद को भी स्वीकार करना होगा  ?

 विजेंद्र -यह प्रश्न सच में बहुत महत्वपूर्ण है . कविता की मुक्ति कभी संभव नहीं हैं ! क्योंकि खराब कविता लिखने वाले सदा बहुतायत में होते हैं . और अच्छी कविता हाशिये पर धकेल दी जाती है. और दिलचस्प बात यह कि ऐसा हर युग में होता रहा है . कविता का भविष्य मुक्त-छंद को और अधिक समृद्ध , विकसित , वास्तुशिल्पीय संरचनात्मक स्थापत्य प्रदान करने में ही  है . काव्य लय को और अधिक अनुशासित और प्रमुखता देने की जरुरत है . कविता की उत्कृष्टता और गरिमा बनाये रखना ही उसकी मुक्ति है . हमें मुक्त-छंद पर अधिक ध्यान देना चाहिए . मुक्त-छंद कविता की बहुत बड़ी उपलब्धि है . कविता में बौद्धिकता तभी अखरती है जब उसका भाव-पक्ष कमजोर होता है. मैं कविता में भाव का पक्षधर हूँ . पर गहन चिंतन के बिना कविता सतही ही रहेगी . और वह विश्व-वन्द्य नहीं हो पायेगी . इधर कविओं को सोचना चाहिए . और आलोचकों को भी .
 आपने कविता को पाठकों से दूर होने की बात कही है . उसके कारण में पहले बता चूका हूँ . छंद या गैर छंद के आलावा और अनेक कारण है जिसकी  वजह से कविता पाठक से दूर होती गई है .  आपने जिन दो कविओं के नाम लिए हैं हाल ही में दिवंगत विष्णु-खरे उन्हों ने कविता को और काव्य भाषा दोनों को खराब किया  है . जो लोग यह कहते हैं कि उन्हों ने गद्य को कविता के स्तर तक पहुंचा दिया . मैं इसे कोई बड़ी उपलब्धि नहीं मानता . क्योंकि हम गद्य में ही तो कविता लिखते झें . तो कविता और गद्य का फर्क क्या हुआ ? बल्कि कहना यह चाहिए की विष्णु खरे ने कविता को गद्य बना दिया . जो एक खराब बात है . लय विहीन कविता बहुत कम जी पाती  है . यही बात असद जैदी और देवी प्रसाद मिश्र के बारे में कही जा सकती है. इन तीनों कविओं ने कविता को गद्य बनाया है. लेकिन कुछ अति ज्ञानी समीक्षकों ने इसे ही उपलब्धि मान कर कविता को गद्य के करीब लेजान की एक प्रकार  से स्वीकृति दे दी है. आलोचकों को चाहिए कि ऐसी काव्य विरोधी प्रवृत्ति  को रोकें . जिस से नए कवि सचेत हो कविता को लय-विहीन होने से बचा सकें . अन्यथा अराजकता और विकसित होगी .
अच्छी कविता के लिए कोई जड़ सूत्र तो नहीं दिया जा सकता . लेकिन कविता को अपनी बुनियादी जरूरतें पूरी करनी ही चाहिए . उसके लिए हम अपने अग्रज कविओं निराला, नागार्जुन , त्रिलोचन , केदारनाथ अग्रवाल और मुक्तिबोध आदि से सीख सकते हैं . कविता में रूपकीय भाषा , बिम्ब , भावावेग पूर्ण मुहावरा आज भी जरुरी हैं . कविता में सपाट बयानी का अर्थ यह नहीं है कि हम काव्य उपकरणों  या कविता की मूल-भूत आवश्यकताओं को त्याग दें . मुक्त-छंद का आविष्कार छंद की विस्तृत भूमि में ही संभव हुआ है .  कवि को छंद की जड़ता , कृत्रिमता और अनावश्यक बंधन से मुक्त किया है . लेकिन छंद की आत्मा लय से नहीं . मेरा ख़याल है आज कविता में बहुत बड़े पुनर्जागरण की जरुरत है . पश्चिमी प्रभाव से भी हम तभी मुक्त हो पाएंगे . कविता सामान्य जन के बीच से पैदा  होती है . और वह उसको संस्कारित करने के लिए ही लिखी जाती है .


चंद्रेश्वर- समकालीन हिंदी कविता की तथाकथित मुख्य-धरा पर  क्या कुछ गिरोहबाज या दादा नुमा कविओं का कब्ज़ा या वर्चस्व हो चूका है . क्या यह सच है कि समकालीन हिंदी कविता के  दुर्दिन के लिए ये ठेकेदार कवि ही जिम्मेदार हैं ?
 विजेंद्र -मुझे ऐसा कुछ नहीं लगता . जो सशक्त और सक्षम कविता है उसे कोई न तो रोक सकता है . न कोई उस पर कब्ज़ा कर सकता है .  न मुझे  उत्कृष्ट और मुख्य धारा की  कविता का कोई दुर्दिन लगता है . दुर्दिन उसी कविता के हैं जो अक्षम और दुर्बल कवि लिख रहे हैं . दरसल वह कविता है ही नहीं .. हर समय में खराब कविता अच्छी कविता को चुनौती बनती है . जैसे अर्थशास्त्र का नयम है . खोटी मुद्रा खरी मुद्रा को चलन से बाहर कर देती है . लेकिन उसके अस्तित्व को नहीं मिटा सकती . समय व्यतीत होने पर सही मुद्रा ही अपनी जगह ले लेती है . अत: उत्कृष्ट कविता चिरस्थाई है . उसी की हमें चिंता करनी चाहिए. आलोचकों का मेहता दायुत्व है कि वे खराब कविता को चिन्हित कर उस प्रवृत्ति पर तीखे प्रहार करें . यहाँ में एक बात और कहना चाहूँगा . कविता कलाकर्म  है . पर सामजिक दृष्टि से वह एक दिशा सूचक नैतिक कर्म भी है . जो कविता को खराब करते हैं वे अनैतिक कर्म के भागीदार बनते हैं . हमारे यहाँ कवि को मनीषी , परिभू  और स्वयं भू  कहकर उसे और बड़ा दायित्व दिया है . राजशेखर  ने ,’ काव्य मीमांसा ‘” में कु कवि होना मृत्यु के तुल्य मान है . उत्कृष्ट  कविता किसी ठेकेदार को न तो बर्दाश्त करती है . और न वह उसके अधीन होती है . वह कठिन से कठिन स्थितिओं में अपना अलग पथ निर्मित करती रही  है .
कवि को कविता के साथ अपने आचरण , बनक और सूझ-बूझ का भी बहुत ध्यान रखना पड़ता है . क्योंकि कवि होने से पहले हम एक मनुष्य हैं . भारत में आज भी कवि के आचरण को अनुकरणीय माना जाता है . इसी  प्रसंग में कवि को बड़ा संघर्ष करना पड़ता है . संघर्ष अनिवार्य है . क्योंकि एक असाधारण कवि हमारी यथास्थिति की जड़ता को तोड़ता है .  वह अग्रगामी पथ को उजासित करता है . सुविधाभोगी और यथास्थिति चाहने वाले उसका विरोध करते हैं . यह द्वंद्वात्मकता ही उसे संघर्ष करने को विवश करती है . अत: किसी सक्षम और अग्रगामी कवि का पता सीधा-सपाट नहीं होता . वह विरोध और संघर्ष से भरा होता है . जिस कवि के जीवन में कोई संघर्ष नहीं होता तो समझो कि वह कोई नया काम नहीं कर रहा . लीक को ही पीट रहा है . ऐसे कवि इतिहास में विस्मृत हो जाए हैं . किसी कवि ने अपनी परम्परा में कितना क्या जोड़ा ? उसे कितना नवीकृत किया ? उसके संघर्ष की दिशा क्या है ? वह अपने देश की जनता से कितना एकात्म हो पाया .? जब तक आज का कवि जनता से एकात्म नहीं होगा वो लोक-धर्मी नहीं होगा . लोक-धर्मी  कवि की पहली और अंतिम शर्त है संघर्षशील जनता के संघर्ष के पक्ष में खड़ा होना . उसे आगे बढ़ाना . भारतीय खेतिहर किसान और श्रमिकों की एकता के लिए प्रयत्नशील होना . भारतीय खेतिहर किसान यहाँ का लोक ह्रदय है .  


चंद्रेश्वर- लोक-संवेदना या लोक संघर्ष से पूरी   तरह विमुख और पूरी तरह से सुविधा-परस्त कुलीन कवि अशोक बाजपेयी  हिंदी के युवा कविओं के बीच क्यों पसंद किये जाते हैं ? क्या हिंदी की समकालीन कविता को अंधी-बंद गली में हो जाने में ऐसे अभिजात गोत्र के कवियों की भूमिका नहीं है ?

विजेंद्र -मुझे नहीं लगता कि सभी युवा अशोक को पसंद करते हैं | जो उनके इर्द-गिर्द पुरस्कार आदि लाभ लेने को उनकी  चाटुकारिता करते हैं वे उन्हें प्रसन्न करने को उनकी कविता को भी सराहते हैं . इस में  संदेह नहीं ऐसे कवि सामान्य पाठक को दिग्भ्रमित करते हैं | लोक से बहुत दूर है अशोक की कविता | कविता उनके लिए कोई प्राथमिकता नहीं है | कवि कहलाने का यश प्राप्त करने को एक फैशनेबुल मनोरंजन भर है . काम-क्रीड़ा जैसा शगल . ऐसे लोगों की चर्चा में समय खराब करने की जरुरत नहीं है | वे कवि रूप में जाने कब के समाप्त हो चुके हैं | आज का लेखक इतना प्रबुद्ध हो चुका है कि उनकी कविता का कोई असर नहीं होता . एक अफसर कवि चल-छद्म और   भ्रष्ट जीवन जीकर क्या कविता रचेगा ! कभी नहीं ---

चंद्रेश्वर- आजकल कवि केदारनाथ सिंह के निधन के बाद उनके चहेतों में यह चर्चा  जोर पकड़ रही है कि वे ग्रामीण संवेदना और लोकजीवन से जुड़े कवि हैं |इस बात में कितनी वास्तविकता है ?
विजेंद्र -केदारनाथ सिंह कशी हिन्दू विश्वविद्यालय में मेरे वरिष्ठ सहपाठी रहे हैं , मैं उनके स्वाभाव को बेहतर जनता हूँ . मेरे  छात्रवास में वे अक्सर आते थे . क्योंकि उनके गाँव का एक छात्र मेरे कनरे की बगल में रहता था . बृजमोहन  सिंह उसका नाम था . वे उस से अपनी देहाती भोजपुरी में बात करते थे . लेकिन अगर कोई दूसरा उनसे बात करे तो एक दम एलीट की तरह बोलते थे . उस समय बनारस में प्रख्यात गीतकार शम्भुनाथ सिंह बहुत ही लोक प्रिय  थे . केदारनाथ सिंह लिखना प्रराम्भा कर चुके थे . लोक को लेकर रूमानी गीत लिखते थे . धान उगेंगे , कि प्राण उगेंगे , आना जी बादल जरुर . स-स्वर गाते हुए मैंने उन्हें सुना है . लेकिन लोक का उत्सव धर्मी रूप ही उनके गीतों में व्यक्त होता था . संघर्ष-धर्मी रूप गायब था . युवा और रोमांटिक मन को उनके गीत बहुत मनमोहक थे . अभी-बिलकुल अभी उनके इन्हीं रूमानी गीतों का संग्रह है .  इन गीतों में लोक ध्वने हैं . लेकिन लोक का संघर्ष गायब  है .हिंदी में आज भी  लोक “  को लेकर बहुत अधिक भ्रांतियाँ बनी हुई हैं . मैंने इस बात को लेकर लगभग एक दशक से भी अधिकअपनी पत्रिका कृतिओर “  के माध्यम से संघर्ष किया है कि लोक का सही रूप सामने आ सके . आज लोक को पुनर्परिभाषित किया जाना चाहिए . अर्थात लोक का एक उत्सवधर्मी रूप . यथा लोक गीत . लोक नृत्य .लोक उत्सव . लोक की चित्रकला . लोक की वेश-भूषा , लोक के अन्धविश्वास . इन सब में सामंती तत्व अधिक हैं .लोक का दूसरा रूप है संघर्ष-धर्मी . अर्थात लोक एक तरह से श्रमशील जनता , श्रमिक, खेतिहर  किसान  और सर्वहारा का  रूप लेता है . इतिहास में इसकी  कुलीन और सत्ताप्रस्त इतिहासकारों ने उपेक्षा की है . उदाहरण के लिए भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में सबसे अधिक कुर्बानियाँ लोक ने ही दी हैं . बिरसा मुंडा , तिलका मांझी , भागो जी , केरल और जगदलपुर में खेतिहर किसान अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ कर क़ुरबानी दे रहे थे . आज भी कवि इस संघर्ष-धर्मी लोक को नहीं देख पा रहा है . आलोचक भी नहीं . आजकल हिंदी में उमाशंकर सिंह परमार ही एक ऐसे लोकधर्मी आलोचक हैं जी संघर्ष-धर्मी लोक के पक्ष में खड़े दीखते हैं .
अत: केदारनाथ सिंह का लोक रूमानियत और उत्सव से संपृक्त है . दूसरे , वे अपनी परम्परा से कटे रहे . जब भी मेरी उनसे बात हुई वे पश्चिमी पतनशील कविओं की ही चर्चा अधिक करते थे . इसी लिए उनकी कविता में भारतीय जीवन और प्रकृति के विराट चित्र नहीं हैं  जहाँ तहाँ गाँव के सन्दर्भ आते है . पर गाँव का संघर्ष गायब रहता है . उनका अनुभव संसार बहुत ही सिमित है . और दिल्ली पहुँच कर वे अपनी देहाती जड़ों को त्याग ही देते हैं . इस रिक्त की पूर्ति  करने के लिए वे चमत्कार और भाषा की जादूगरी से काम चलाते हैं . इस से कुत्सित सौंदर्यशास्त्र की  सृष्टि होती है . केदारनाथ सिंह के पास कोई समृद्ध और वैज्ञानिक विचारधारा भी नहीं है . अत: उनकी कविता में उस चिंतन की गहनता अनुपस्थित है जिस से कविता सार्वभौमिक बनकर विश्व-वन्द्य बनती है .  यही कारण है उनकी कविता में निराला , नागार्जुन , त्रिलोचन और केदारनाथ अग्रवाल की कविता का विकास नहीं मिलता .

चंद्रेश्वर- आपकी लोक संवेदना और केदारनाथ सिंह की लोक संवेदना क्या अंतर है ?
विजेंद्र -जैसा कि मैंने अभी ऊपर कहा है केदार जी का लोक उत्सवधर्मी है . उन पर पाश्चात्य पतनशील कवि रिल्के तथा फ्रांस के प्रतीक वादिओं का बहुत असर है . मैंने लोक के संघर्ष-धर्मी रूप को अपनी कविता में व्यक्त किया है . मेरी सर्वाधिक लम्बी कविता का नाम ही ,”  जन-शक्ति है . पहले वह  क्यों “  नाम की पत्रिका में प्रकाशित हुई , बाद में उसको और संशोधित करजनशक्ति
नाम से कविता संग्रह में संकलित किया गया है . इस में मेरी 5 लम्बी कविताएँ है .  इसका संपादन किया है प्रख्यात आलोचक स्व. कमलाप्रसाद जी ने .  इस पर उनकी लम्बी भूमिका भी है . प्रकाशित हुई है , “ अनुभव प्रकाशन दिल्ली से . ( 2011 )मेरे लिए लोक अब सर्वहारा का पर्याय बन चुका है . वह वर्ग चेतन है . और अपनी मुक्ति के लिए शोषक सत्ता से सतत संघर्ष रत है .

चंद्रेश्वर- आप अपना काव्य गुरु हिंदी में किसे मानते हैं ?

विजेंद्र -मेरे काव्य गुरु है कवि त्रिलोचन . काशी हिन्दू विश्व विद्यालय का छात्र होने के नाते 6 वर्ष तक मुझे कवि त्रिलोचन का असीम स्नेह और सान्निध्य प्राप्त हुआ . और वह अंत तक बना रहा . जब में भरतपुर राजकीय महाविद्यालय में अंग्रेजी साहित्य का प्राध्यापन कर रहा था तो त्रिलोचन कई बार मेरे घर आये . और  भरतपुर का  विश्व विख्यात घना पक्षी विहार , अभयारण्य में बेहद एक सप्ताह तक रमे रहे . भरतपुर को देखकर उन्हों ने टिप्पणी की , “ मुझे अवध याद आ रहा है “ .
जब तक बनारस रहा मेरी लगभग हर कविता को उन्होंने देखा . आवश्यक संशोधन किया . सुझाव दिए . और घन्टों प्राचीन काव्य और काव्य-शास्त्र के बारे में बताते रहे . जब भी वहआये लम्बी बैठक की . लेखन की प्रेरणा मेरे गुरुवार प्रख्यात लेखक रामदरश मिश्र ने दी . मैं बहुत सौभाग्यशाली हूँ . मुझे प्रसिद्ध कथाकार शिवप्रसाद सिंग , रामदरश मिश्र और नामवर सिंह ने कक्षा में हिंदी पढ़ाई है . बनारस में मुझे  साहित्य का जो गहन संस्कार मिला उसके कारण ही आज में इस स्थिति में हूँ .  

चंद्रेश्वर- आप हिंदी या अन्य विश्व - भाषाओँ में किन कविओं को अपना प्रेरणा स्रोत मानते हैं ?

 विजेंद्र -दरसल , मुझे किसी एक कवि ने ही प्रेरित नहीं किया .मैं अंग्रेजी का विद्यार्थी रहा हूँ . लेकिन मैंने अपने classics पढने के लिए तीन वर्ष संस्कृत व्याकरण पढने में लगाये . तो क्लासिक्स में मुझे वाल्मीकि , भवभूति और कालिदास ने आकर्षित किया . उक्त कवि वैचारिक दृष्टि से आज भले ही  प्रासंगिक न हों . पर वहाँ उत्कृष्ट  कविता आज भी सुरक्षित है . किसी भी कवि या आलोचक को अपने classics किसी भी तरह पढने चाहिए . बिना परम्परा के गहन अध्ययन के हम किसी बड़ी रचना की कल्पना नहीं कर सकते . बाद में मुझे सूर , तुलसी ,  मीरा, सूर , जायसी और कबीर में भी मेरी दिलचस्पी बनी रही . निराला मेरे प्रिय कविओं में से एक हैं . बाद में त्रिलोचन , नागार्जुन , केदारनाथ अग्रवाल अदि को पढता रहा . अंग्रेजी में  शेक्सपियार , मिल्टन , शैली , वर्ड्सवर्थ आदि कवि पढ़े . जर्मन कवि गेटे की महान कृति फाउस्ट को मैंने कितनी बार पढ़ा होगा . गेटे और उसके फाउस्ट पर मैंने आलेख भी लिखे . गेटे पर सबसे पहले मेरा आलेख “  चिंतन दिशा “  में आया . बाद में वही आलेख सम्प्रेषण ने प्रकाशित किया है . मुझे विश्व के लोकधर्मी कवि बहुत पसंद हैं . अत: मेरा विचार बना कि अपने समय के शिखर लोक-धर्मी कविओं पर विस्तार से लिखा जाये . अत: पुस्तक आई , “  विश्व के लोक-धर्मी कवि “ ( अभिषेक प्रकाशन , दिल्ली ) इस में 12 देशों के कवि हैं क्रन्तिकारी कवि , तू  हू ( वियतनाम लोकधर्मी  कवि  : मायकोवस्की ( रूस ) , फिलस्तीनी कवि ( महमूद दरवेश ), स्पेनिश कवि        ( लोर्का ),  ब्रेख्त                  (   जर्मनी ) ,वाई जुई              ( चीन ) , नाजिम हिकमत ( तुर्की ) ,शैले                  ( अंग्रेजी ) ,वाल्ट व्हिटमन     ( अमरीका ) ,वोले  शोयंका    ( अफ्रीका नायजीरिया ), पाब्लो नेरुदा        ( चिली  ),  रेफाएल आल्बेर्ती   ( स्पेन )
इन कविओं  को पढ़ कर चित समृद्ध होता रहा है . आज भी इन्हें पढता रहता हूँ .अत: कोई एक कवि मेरा प्रेरणा स्रोत न हो कर अनेक कविओं के काव्य संसार से मेरा चित्त रचा गया है . यही कारण है मैं एक ढर्रे की कविता नहीं लिख पाता .

चंद्रेश्वरहिंदी में आपके समवयस्क /समकालीन कवियों में कौन से कवि महत्वपूर्ण लगते हैं . और क्यों

विजेंद्र -समवयस्क  और समकालीन . अनेक कवि हैं . समकालीनों में नागार्जुन , त्रिलोचन और केदारनाथ अग्रवाल भी आते हैं . मुझे वे बहुत पसंद हैं . क्योंकि उक्त कविओं में संघर्षधर्मी लोक को केंद्र में रखा है . दूसरे इन में भावों की बड़ी विविधता है . अर्थात संघर्ष-धर्मी कविता के साथ प्रेम ,सौन्दर्य , प्रकृति , करुणा , भाई-चारा  और सामजिक यथार्थ का बखूबी चित्रण है . हाँ , शमशेर और मुक्तिबोध भी . शमशेर अपने शिल्प कौशल और मुक्तिबोध अपने आत्मविश्लेषण के लिए .समवयस्कों में कुमारेन्द्र पारसनाथ सिंह , धूमिल , भगवत रावत ,मलय , विष्णुचंद्र शर्मा , चन्द्र कान्त देवताले . इन में  विष्णु और मलय ही जीवित हैं .